पटना उच्च न्यायालय का फैसला शिक्षकों को छात्रों की अनुपस्थिति के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा

पटना उच्च न्यायालय का फैसला शिक्षकों को छात्रों की अनुपस्थिति के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा

यह मामला बिहार सरकार के पत्र संख्या 6067 दिनांक 03.08.2016 से संबंधित है, जिसमें उल्लेख किया गया था कि ‘जीविका’ नाम की ग्रामीण संस्था के सदस्य विद्यालयों की निगरानी करेंगे। यदि निरीक्षण के समय छात्रों की उपस्थिति 75% से नीचे रही, तो उस दिन के लिए शिक्षक और प्रधानाध्यापक के वेतन में कटौती की जा सकती है। इसके अतिरिक्त, यह भी कहा गया था कि ऐसी स्थिति में शिक्षक को चाहिए कि वे छात्रों के अभिभावकों से मिलकर उन्हें विद्यालय भेजने के लिए प्रेरित करें| जिसे पटना उच्च न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में रद्द कर दिया। इस निर्णय ने न केवल शिक्षकों के अधिकारों का संरक्षण किया, बल्कि शिक्षा क्षेत्र में गैर-शैक्षणिक संस्थाओं की अनावश्यक गतिविधियों पर भी प्रश्न उठाए।

‘जीविका’ एक स्वयं सहायता समूह पर आधारित संगठन है, जो बिहार ग्रामीण जीविकोपार्जन संवर्धन समिति द्वारा चलाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण महिलाओं और सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों को आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत बनाना है। लेकिन सरकार ने इन समूहों को स्कूल निरीक्षण और शिक्षकों की हाजिरी की निगरानी का कार्य सौंप दिया है, जो कि शैक्षणिक प्रणाली से संबंधित नहीं है।

याचिकाकर्ता का तर्क था कि ‘जीविका’ के सदस्य शिक्षित नहीं हैं और उन्हें स्कूलों के संचालन के बारे में कोई जानकारी नहीं है। ऐसे में यदि उन्हें निरीक्षण की जिम्मेदारी दी जाती है, तो यह शिक्षा प्रणाली में अफरातफरी उत्पन्न करेगा।

पत्र में क्या था?

  1. जीविका समिति को विद्यालयों की निगरानी का अधिकार: पत्र में उल्लेख किया गया कि बिहार ग्रामीण आजीविका संवर्धन सोसाइटी की सामाजिक कार्य समिति के कम से कम दो सदस्य हर माह दो बार विद्यालयों का निरीक्षण करेंगे। निरीक्षण के समय, वे निम्नलिखित छह पहलुओं पर ध्यान देंगे:
  • विद्यालय का समय पर खुलने और बंद होने की प्रक्रिया।
  • शिक्षकों की उपस्थिति।
  • विद्यार्थियों का नामांकन और उनकी उपस्थिति।
  • शिक्षण का नियमित होना।
  • विद्यालय की स्वच्छता और शौचालयों का उपयोग।
  • मध्याह्न भोजन की व्यवस्था।

2. शिक्षकों की अनुपस्थिति पर कार्रवाई: यदि निरीक्षण के दौरान जीविका समिति के सदस्यों को कोई शिक्षक अनुपस्थित मिलता है, तो विद्यालय के प्रधानाध्यापक को उस शिक्षक की अनुपस्थिति दर्ज करनी होगी। इसके बाद, जीविका समिति की रिपोर्ट के आधार पर ब्लॉक शिक्षा अधिकारी उस शिक्षक से स्पष्टीकरण मांगेंगे। यदि स्पष्टीकरण संतोषजनक नहीं होता है, तो नियमित शिक्षकों की वेतन में कटौती का अधिकार वेतन वितरण प्राधिकारी को और नियोजित शिक्षकों की वेतन में कटौती की सिफारिश जिला कार्यक्रम अधिकारी (स्थापना) को दी गई थी।

3. छात्रों की कम उपस्थिति पर शिक्षकों की सजा: पत्र के खंड-3 में यह उल्लेख किया गया कि यदि निरीक्षण के दौरान किसी प्राथमिक विद्यालय में विद्यार्थियों की उपस्थिति 75% से कम पाई जाती है, तो प्रधानाध्यापक और शिक्षकों को व्यक्तिगत रूप से विद्यार्थियों के अभिभावकों से संपर्क करना होगा और उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करनी होगी। यदि लगातार तीन निरीक्षणों में उपस्थिति 75% से कम रहती है, तो उस दिन के लिए शिक्षकों और प्रधानाध्यापक के वेतन का 50% तक काट लिया जाएगा।

कोर्ट ने क्या निर्णय लिया?

मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र मेनन और न्यायमूर्ति राजीव रंजन प्रसाद की पीठ ने इस मामले की विस्तार से सुनवाई की। अदालत ने सरकार से स्कूलों में उपलब्ध आधारभूत संरचना और सुविधाओं के बारे में जानकारी मांगी, लेकिन सरकार इस विषय पर संतोषजनक उत्तर प्रदान करने में असफल रही। अदालत ने निम्नलिखित मुद्दों पर अपना निर्णय सुनाया:

  1. जीविका को निरीक्षण का अधिकार देना अनुचित: अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि जीविका एक गैर-शैक्षिक संगठन है, जिसका कार्य ग्रामीण गरीबों को आजीविका प्रदान करना है। इसे स्कूलों की जांच और शिक्षकों की उपस्थिति के बारे में जानकारी हासिल करने का अधिकार देना कानूनी रूप से उचित नहीं है। RTE अधिनियम की धारा 21 के अंतर्गत स्कूल प्रबंधन समिति (SMC) को स्कूलों की निगरानी का अधिकार प्रदान किया गया है। जीविका को यह कार्य सौंपने से SMC के वैधानिक अधिकारों में विघटन होता है।
  2. शिक्षकों पर अनुचित दबाव: अदालत ने कहा कि शिक्षकों को अभिभावकों से सीधे संपर्क करने और छात्रों की उपस्थिति सुनिश्चित करने की अपेक्षा करना वास्तविकता से परे है। शिक्षकों की मुख्य जिम्मेदारी शिक्षण है, न कि अभिभावकों के पीछे दौड़ना। सरकार ने ऐसे कोई साधन या आधारभूत संरचना उपलब्ध नहीं कराई है, जिसके द्वारा शिक्षक आसानी से अभिभावकों से संपर्क कर सकें।
  3. सैलरी में कटौती का प्रावधान मनमाना: अदालत ने खंड-3 को पूरी तरह से मनमाना और गैरकानूनी बताया। छात्रों की कम उपस्थिति के कारण शिक्षकों की सैलरी में कटौती एक दंडात्मक कदम है, जिसका कोई ठोस आधार नहीं है। सैलरी में कटौती एक गंभीर निजी परिणाम है, और इसे केवल इस वजह से लागू नहीं किया जा सकता कि निरीक्षण के दिन छात्रों की उपस्थिति कम थी।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के संदर्भ में

राज्य सरकार ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (आरटीई अधिनियम) का उल्लेख किया, जिसमें शिक्षकों की कुछ जिम्मेदारियों का विवरण दिया गया है:

  • बच्चों की उपस्थिति के बारे में अभिभावकों को सूचित करना।
  • छात्रों की प्रगति के बारे में जानकारी प्रदान करना।
  • समय-समय पर मीटिंग आयोजित करना।

हालाँकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि इन जिम्मेदारियों का मतलब यह नहीं है कि शिक्षक व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक छात्र के घर जाकर उसे स्कूल आने के लिए कहें और यदि वह नहीं आता है, तो उसके लिए शिक्षकों को दंडित किया जाए।

स्कूल प्रबंधन समिति का कार्य

न्यायालय ने बताया कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम की धारा 21 के तहत, स्कूल प्रबंधन समिति को स्कूल की निगरानी का कानूनी अधिकार हासिल है। ऐसे में ‘जीविका’ जैसे किसी बाहरी संगठन को यह अधिकार देना अधिनियम की मूल भावना के विपरीत है।

सरकार का मौन और न्यायालय की असहमति

न्यायालय ने यह भी कहा कि जब सरकार से पूछा गया कि स्कूलों में कौन सी महत्वपूर्ण सुविधाएं उपलब्ध हैं—जैसे छात्रों की उपस्थिति दर्ज करने की व्यवस्थाएं, अभिभावकों से संपर्क के लिए तकनीकी साधन आदि—तो सरकार ने इस पर कोई निश्चित उत्तर नहीं दिया। न्यायालय ने इसे गंभीरता से संज्ञान में लेते हुए कहा कि जब तक स्कूलों में ऐसी बुनियादी सुविधाएं मौजूद नहीं होंगी, तब तक शिक्षक क्या कर सकते हैं?

न्यायालय के निर्देश

पटना उच्च न्यायालय ने अंततः अपने निर्णय में स्पष्ट आदेश दिए:

  • पत्रांक संख्या 6067 दिनांक 03.08.2016 के उस अंश को रद्द किया गया, जिसमें जीविका को निरीक्षण का अधिकार प्रदान किया गया था।
  • उस हिस्से को भी रद्द किया गया जिसमें शिक्षकों की वेतन कटौती की व्यवस्था की गई थी।
  • राज्य सरकार को यह निर्देश दिया गया कि स्कूलों में छात्रों की उपस्थिति दर्ज करने के लिए तकनीकी और व्यवस्थागत उपाय किए जाएं, न कि शिक्षकों पर अतिरिक्त भार डाला जाए।

इस निर्णय का व्यापक प्रभाव

यह निर्णय न केवल बिहार के शिक्षकों के लिए राहत देने वाला है, बल्कि पूरे देश में एक उदाहरण बन सकता है। इससे यह स्पष्ट संदेश मिलता है कि:

  • शिक्षकों का कार्य केवल शिक्षा देना है, वे सामाजिक कार्यकर्ता या सर्वे एजेंट नहीं होते।
  • शिक्षा प्रणाली को सुदृढ़ बनाने के लिए सरकार की जिम्मेदारी है कि वह स्कूलों को मजबूत बुनियादी ढांचा और व्यवस्थाएं उपलब्ध कराए।
  • किसी भी प्रकार की दंडात्मक कार्रवाई, चाहे वो वेतन कटौती ही क्यों न हो, उचित प्रक्रिया और कानूनी आधार के बिना नहीं की जा सकती।

पटना के उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया यह निर्णय न सिर्फ शिक्षकों के अधिकारों का संरक्षण करता है, बल्कि शिक्षा प्रणाली को और अधिक कारगर बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम भी है। यह निर्णय यह भी सिखाता है कि नीति निर्माण के दौरान उसकी वास्तविकता और कानूनी मान्यता पर ध्यान देना आवश्यक है। केवल शिक्षकों को अवांछित दबाव से बचाकर और स्कूलों में अधिक मजबूत आधारभूत सुविधाएं प्रदान करके ही हम बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सकते हैं।